संगति (Sangati)
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लोहा कीचड़ में पड़ा रह जाए तो लोहा नहीं बचता, ज़ंग हो जाता है, और कहते हैं कि उसी लोहे को अगर पारस की दोस्ती मिल जाए तो भी वो लोहा नहीं बचता, सोना हो जाता है। हमारे जीवन की क्या गुणवत्ता है, वो अगर किसी एक चीज़ से निर्धारित होती है, तो वो है संगति।
तुम्हारे जीवन की गति को, दिशा को, पूर्णता को और सुन्दरता को अगर कुछ निर्धारित करेगा, तो वो ये है कि तुम किनके साथ जुड़े रहे, किन लोगों को तुमने अपनी ज़िन्दगी में जगह दी। सबकुछ इसी से बदल जाना है।
आत्मा असंग है, पर हम किसी की संगति पर आश्रित होते हैं, मन को कोई विषय चाहिए और शरीर को वस्तु चाहिए। हमें संगति चाहिए क्योंकि हम धरती के बाशिन्दे हैं।
तो हमें कुसंगति और सुसंगति का विवेक होना चाहिए।
प्रस्तुत पुस्तक में आचार्य प्रशांत समझाते हैं कि कुसंगति तुम्हें और ज़्यादा आश्रित करती है कुसंगति पर, तुम तड़प जाओगे कुसंगति और नहीं मिली तो। और सुसंगति तुमको धीरे-धीरे हर प्रकार की संगति से आज़ाद कर देती है, यहाँ तक कि वो तुमको अन्ततः सुसंगति से भी आज़ाद कर देती है।
यदि आप भी स्वयं को एक सार्थक और सुन्दर संगति देना चाहते हैं तो यह पुस्तक आपके लिए है।
तुम्हारे जीवन की गति को, दिशा को, पूर्णता को और सुन्दरता को अगर कुछ निर्धारित करेगा, तो वो ये है कि तुम किनके साथ जुड़े रहे, किन लोगों को तुमने अपनी ज़िन्दगी में जगह दी। सबकुछ इसी से बदल जाना है।
आत्मा असंग है, पर हम किसी की संगति पर आश्रित होते हैं, मन को कोई विषय चाहिए और शरीर को वस्तु चाहिए। हमें संगति चाहिए क्योंकि हम धरती के बाशिन्दे हैं।
तो हमें कुसंगति और सुसंगति का विवेक होना चाहिए।
प्रस्तुत पुस्तक में आचार्य प्रशांत समझाते हैं कि कुसंगति तुम्हें और ज़्यादा आश्रित करती है कुसंगति पर, तुम तड़प जाओगे कुसंगति और नहीं मिली तो। और सुसंगति तुमको धीरे-धीरे हर प्रकार की संगति से आज़ाद कर देती है, यहाँ तक कि वो तुमको अन्ततः सुसंगति से भी आज़ाद कर देती है।
यदि आप भी स्वयं को एक सार्थक और सुन्दर संगति देना चाहते हैं तो यह पुस्तक आपके लिए है।
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लोहा कीचड़ में पड़ा रह जाए तो लोहा नहीं बचता, ज़ंग हो जाता है, और कहते हैं कि उसी लोहे को अगर पारस की दोस्ती मिल जाए तो भी वो लोहा नहीं बचता, सोना हो जाता है। हमारे जीवन की क्या गुणवत्ता है, वो अगर किसी एक चीज़ से निर्धारित होती है, तो वो है संगति।
तुम्हारे जीवन की गति को, दिशा को, पूर्णता को और सुन्दरता को अगर कुछ निर्धारित करेगा, तो वो ये है कि तुम किनके साथ जुड़े रहे, किन लोगों को तुमने अपनी ज़िन्दगी में जगह दी। सबकुछ इसी से बदल जाना है।
आत्मा असंग है, पर हम किसी की संगति पर आश्रित होते हैं, मन को कोई विषय चाहिए और शरीर को वस्तु चाहिए। हमें संगति चाहिए क्योंकि हम धरती के बाशिन्दे हैं।
तो हमें कुसंगति और सुसंगति का विवेक होना चाहिए।
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आत्मा असंग है, पर हम किसी की संगति पर आश्रित होते हैं, मन को कोई विषय चाहिए और शरीर को वस्तु चाहिए। हमें संगति चाहिए क्योंकि हम धरती के बाशिन्दे हैं।
तो हमें कुसंगति और सुसंगति का विवेक होना चाहिए।
प्रस्तुत पुस्तक में आचार्य प्रशांत समझाते हैं कि कुसंगति तुम्हें और ज़्यादा आश्रित करती है कुसंगति पर, तुम तड़प जाओगे कुसंगति और नहीं मिली तो। और सुसंगति तुमको धीरे-धीरे हर प्रकार की संगति से आज़ाद कर देती है, यहाँ तक कि वो तुमको अन्ततः सुसंगति से भी आज़ाद कर देती है।
यदि आप भी स्वयं को एक सार्थक और सुन्दर संगति देना चाहते हैं तो यह पुस्तक आपके लिए है।





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