शिवोहम् (Shivoham)
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शिव माने बोध। ऋभुगीता कहती है कि शिव प्रकाश रूप हैं। उस प्रकाश में, उस रोशनी में ख़ुद को देखो। अपनी हालत, अपनी ज़िंदगी को देखो। यही महाशिवरात्रि का पर्व है।
इंसान की जो जड़ है, इंसान का जो केंद्र बिंदु है, उसकी तरफ़ इशारा करने के लिए ‘शिव’ शब्द की रचना हुई। शिव कोई व्यक्ति थोड़े ही हैं। वो कोई ऐसी इकाई नहीं हैं जो अपना कोई निजी, पृथक या विशिष्ट व्यक्तित्व रखती हो। जो समय के पार हो, उसे समय के किसी बिंदु पर अवस्थित नहीं करते। न तो यह कह देते हैं कि वह कल-परसों का है, न यह कह देते हैं कि वह आदिकालीन है। न यह कह देते हैं कि वह सागरों में विराजता है और न ही वह पहाड़ की चोटियों पर बैठा है। जो समय में कहीं पर नहीं है, वो किसी स्थान पर भी नहीं हो सकता। सब समय, सब स्थान मन का विस्तार हैं, और शिव मन की मंज़िल हैं, मन का केंद्र हैं, मन की प्यास हैं।
सब स्थानों के नाम होते हैं, क्योंकि सब स्थान तो मन के विस्तार में ही हैं। मन के विस्तार में जो कुछ होगा उसका नाम होगा, उसकी कहानी होगी, गुण होंगे। लेकिन जो मन के केंद्र पर है, उसका न कोई नाम, न कहानी, न गुण, न कोई स्थान होता है। लेकिन हमारी ज़िद कि कुछ तो कहकर के उसको बुलाना है। तो फिर जो छोटे-से-छोटा और शुभ नाम हो सकता था, वो दे दिया – शिव।
तो शिव इसलिए नहीं हैं कि उनके साथ और बहुत सारे किस्से जोड़ दो। शिव इसलिए हैं ताकि हम अपने किस्सों से मुक्ति पा सकें। शिव हमारे सब किस्सों का लक्ष्य हैं, गंतव्य हैं। शिव को भी एक और किस्सा मत बना लो, देवता मत बना लो। पर मन को देवताओं के साथ सुविधा रहती है क्योंकि देवता हमारे ही जैसे हैं – खाते-पीते हैं, चलते हैं। उनके भी हाथ-पाँव हैं, वाहन हैं, लड़ाइयाँ करते हैं, पीटे जाते हैं। उनकी भी पत्नियाँ हैं, उनकी भी कामनाएँ हैं। तो शिव को भी देवता बना लेने में हमें बड़ी रुचि रहती है। पर अगर यह कर लोगे तो अपना ही नुक़सान करोगे।
शिव न देवता हैं, न भगवान् हैं, न ईश्वर हैं; सत्य मात्र हैं। अंतर करना सीखो!
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शिव माने बोध। ऋभुगीता कहती है कि शिव प्रकाश रूप हैं। उस प्रकाश में, उस रोशनी में ख़ुद को देखो। अपनी हालत, अपनी ज़िंदगी को देखो। यही महाशिवरात्रि का पर्व है।
इंसान की जो जड़ है, इंसान का जो केंद्र बिंदु है, उसकी तरफ़ इशारा करने के लिए ‘शिव’ शब्द की रचना हुई। शिव कोई व्यक्ति थोड़े ही हैं। वो कोई ऐसी इकाई नहीं हैं जो अपना कोई निजी, पृथक या विशिष्ट व्यक्तित्व रखती हो। जो समय के पार हो, उसे समय के किसी बिंदु पर अवस्थित नहीं करते। न तो यह कह देते हैं कि वह कल-परसों का है, न यह कह देते हैं कि वह आदिकालीन है। न यह कह देते हैं कि वह सागरों में विराजता है और न ही वह पहाड़ की चोटियों पर बैठा है। जो समय में कहीं पर नहीं है, वो किसी स्थान पर भी नहीं हो सकता। सब समय, सब स्थान मन का विस्तार हैं, और शिव मन की मंज़िल हैं, मन का केंद्र हैं, मन की प्यास हैं।
सब स्थानों के नाम होते हैं, क्योंकि सब स्थान तो मन के विस्तार में ही हैं। मन के विस्तार में जो कुछ होगा उसका नाम होगा, उसकी कहानी होगी, गुण होंगे। लेकिन जो मन के केंद्र पर है, उसका न कोई नाम, न कहानी, न गुण, न कोई स्थान होता है। लेकिन हमारी ज़िद कि कुछ तो कहकर के उसको बुलाना है। तो फिर जो छोटे-से-छोटा और शुभ नाम हो सकता था, वो दे दिया – शिव।
तो शिव इसलिए नहीं हैं कि उनके साथ और बहुत सारे किस्से जोड़ दो। शिव इसलिए हैं ताकि हम अपने किस्सों से मुक्ति पा सकें। शिव हमारे सब किस्सों का लक्ष्य हैं, गंतव्य हैं। शिव को भी एक और किस्सा मत बना लो, देवता मत बना लो। पर मन को देवताओं के साथ सुविधा रहती है क्योंकि देवता हमारे ही जैसे हैं – खाते-पीते हैं, चलते हैं। उनके भी हाथ-पाँव हैं, वाहन हैं, लड़ाइयाँ करते हैं, पीटे जाते हैं। उनकी भी पत्नियाँ हैं, उनकी भी कामनाएँ हैं। तो शिव को भी देवता बना लेने में हमें बड़ी रुचि रहती है। पर अगर यह कर लोगे तो अपना ही नुक़सान करोगे।
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